रो रो के ग़ैरों को हँसाना हम भी कितने पागल हैं यूँ अपनों को और रुलाना हम भी कितने पागल हैं सच्चों को झूटा गर्दाना हम भी कितने पागल हैं और झूटों को सच्चा जाना हम भी कितने पागल हैं अक़्ल-ओ-ख़िरद ने अक्सर टोका उन की बात नहीं मानी अपने दिल का कहना माना हम भी कितने पागल हैं अपने घर को आग लगा कर उन के दर पे आ बैठे बेगानों को अपना जाना हम भी कितने पागल हैं अहल-ए-ख़िरद को पागल जाना अहल-ए-जुनूँ को दीवाना अपने को समझा फ़रज़ाना हम भी कितने पागल हैं जब उन की महफ़िल में बैठे हुक्म मिला उठ जाने का फिर भी रक्खा आना-जाना हम भी कितने पागल हैं ग़ैर को अपना जाना 'आलिम' ठंडे दिल से बात सुनी अपनों को समझा बेगाना हम भी कितने पागल हैं