रोज़ देखा है शफ़क़ से वो पिघलता सोना रोज़ सोचा है कि तुम मेरे हो मेरे हो ना मैं तो इक काँच के दरिया में बही जाती हूँ खनखनाते हुए हमराज़ मुझे सुन लो ना मैं ने कानों में पहन ली है तुम्हारी आवाज़ अब मिरे वास्ते बे-कार हैं चाँदी सोना मेरी ख़ामोशी को चुपके से सजा दो आ कर इक ग़ज़ल तुम भी मिरे नाम कभी लिक्खो ना रूह में गीत उतर जाते हैं जैसे ख़ुश्बू गुनगुनाती सी कोई शाम मुझे भेजो ना चाँदनी ओस के क़तरों में सिमट जाएगी तीरगी सुब्ह सवेरे में कहीं खो दो ना फिर से आँखों में कोई रंग सजा लूँ 'नैनाँ' कब से ख़्वाबों को यहाँ भूल गई थी बोना