रोज़ शाम होती है रोज़ हम सँवरते हैं फूल सेज के यूँही सूखते बिखरते हैं दिल को तोड़ने वाले तू कहीं न रुस्वा हो ख़ैर तेरे दामन की चश्म-ए-तर से डरते हैं सुब्ह टूट जाता है आईना तसव्वुर का रात भर सितारों से अपनी माँग भरते हैं ज़ोर और क्या चलता फ़स्ल-ए-गुल में क्या करते बस यही कि दामन को तार तार करते हैं या कभी ये हालत थी ज़ख़्म-ए-दिल से डरते थे और अब ये आलम है चारागर से डरते हैं यूँ तिरे तसव्वुर में अश्क-बार हैं आँखें जैसे शबनमिस्ताँ में फूल रक़्स करते हैं ख़ूँ हमें रुलाती है राह की थकन 'बानो' जब हमारी नज़रों से कारवाँ गुज़रते हैं