रुख़ नज़र का कभी इधर न हुआ दिल को हसरत रही जिगर न हुआ हिज्र की शब तो जान-लेवा थी दिन जुदाई का भी बसर न हुआ उस के अल्फ़ाज़ दिल में चुभते हैं कोई फ़िक़रा भी बे-असर न हुआ बज़्म में सौ मक़ाम बदले हैं रुख़ तुम्हारा कभी उधर न हुआ वस्ल लिक्खा था मेरी क़िस्मत में बे-कसी देखिए मगर न हुआ हिज्र ने दम पे ये बना दी थी हम से नाला भी रात-भर न हुआ उम्र-भर उस की ताक ही में रहे ध्यान अपना इधर-उधर न हुआ उस के जल्वे से था जहाँ मा'मूर ग़ैर का ज़िक्र भूल कर न हुआ उस को आशिक़ न समझो ऐ 'शंकर' जो फ़िदा उस के नाम पर न हुआ