रुख़ से फ़ितरत के हिजाबात उठा देता है आइना टूट के पत्थर को सदा देता है अज़्मत-ए-अहल-ए-वफ़ा और बढ़ा देता है ग़म-ए-मुसलसल हो तो फिर ग़म भी मज़ा देता है दिल धड़कता है तो पहरों नहीं सोने देता नींद आती है तो एहसास जगा देता है तुम ने शायद कभी इस बात को सोचा होगा वक़्त हाथों की लकीरें भी मिटा देता है जो मिरे क़त्ल के दरपय था न जाने कब से आज वो भी मुझे जीने की दुआ देता है अपने किरदार पे मौजों को भी शर्म आती है जब कोई डूब के साहिल का पता देता है ग़म की तौफ़ीक़ भी सब को नहीं मिलती 'गौहर' ये वो ने'मत है जो मुश्किल से ख़ुदा देता है