था मेरी ख़्वाहिशों में जो कल पेच-ओ-ताब सा लगता है उस का ज़िक्र भी अब तो अज़ाब सा बिखरा हुआ था चारों तरफ़ मैं वरक़-वरक़ उस ने मुझे समेट लिया है किताब सा अब तक बसा हुआ है कोई ला-शुऊ'र में अब तक महक रहा है पसीना गुलाब सा फिर इस के बा'द होगी कहानी की इब्तिदा ये इंतिशार तो है फ़क़त इंतिसाब सा क्यों वज़-ए-एहतियात में काटी तमाम उम्र पूछे जो ज़िंदगी तो रहूँ ला-जवाब सा देखूँ तो दूर तक न सितारे न चाँदनी सोचूँ तो अपना ज़ख़्म लगे आफ़्ताब सा हिजरत का ज़ख़्म अब भी खटकता है पाँव में अब भी 'ज़िया' है दहर में ख़ाना-ख़राब सा