सब के हाथों में आज पत्थर है और निशाने पे बस मिरा सर है काश आकर ज़रा कोई देखे क़ाबिल-ए-दीद कितना मंज़र है ऐसी ख़ूबी है जाने क्या उस में देख ले जिस को वो मुसह्हर है बुत-शिकन नाम जिस का है मशहूर इक पयम्बर है इब्न-ए-आज़र है अब तो जाए अमाँ कहीं भी नहीं आफ़तों का पहाड़ सर पर है जल गए धूप की तमाज़त से साएबाँ है न कोई छप्पर है जिस्म उर्यां है बाल बिखरे हुए घर से बाहर ये किस की दुख़्तर है शौक़ से संगसार हो जाऊँ जुर्म कोई अगर मिरे सर है हो सके तो ज़रा सिमट जाओ पाँव फैलाओ जितनी चादर है क्यों झुकाऊँ मैं सर कहीं जा कर मिरे सर के लिए तिरा दर है जा के मस्जिद में देख ले ऐ 'यास' अदना आ'ला वहाँ बराबर है