सब ये बातें कहाँ समझते हैं दर्द की हम ज़बाँ समझते हैं कारोबारी नहीं हैं सब लेकिन अपना सूद-ओ-ज़ियाँ समझते हैं जानते हैं कि क्यों उठा लंगर क्यों खुला बादबाँ समझते हैं उन से मिल कर भी वो मिला ही नहीं जो उसे बे-ज़बाँ समझते हैं कौन कैसा है किस की नज़रों में लोग ये सब कहाँ समझते हैं अब हमारी ज़बाँ न खुलवाओ सारी बातें मियाँ समझते हैं दाद देना तो इक अलग फ़न है शे'र हम भी कहाँ समझते हैं खेल है वो मिरे लिए 'नज़मी' सब जिसे इम्तिहाँ समझते हैं