सभी की थी नज़र इस पर गरेबानों पे क्या गुज़री किसी ने ये नहीं देखा कि दीवानों पे क्या गुज़री न पूछो इस भरी महफ़िल में इंसानों पे क्या गुज़री हुए जब शम्अ के टुकड़े तो परवानों पे क्या गुज़री धुआँ बन कर उड़ा जाता है मयख़ाने का मय-ख़ाना मेरा दिल तोड़ के साक़ी कि पैमानों पे क्या गुज़री हर एक जाम-ए-मय-ए-गुल-गूँ का दा'वेदार बन बैठा तिरी नीची नज़र उठते ही ईमानों पे क्या गुज़री हज़ारों साल सर साहिल से टकराती रहीं मौजें मिरी कश्ती से टक्कर ले के तूफ़ानों पे क्या गुज़री अभी 'फ़य्याज़' फिर तहज़ीब लेगी इक नई करवट ये फिर तारीख़ लिख्खेगी कि इंसानों पे क्या गुज़री