मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा वो जाने आज है क्यूँ अजनबी बना बैठा शिकायत उस से नहीं अपने-आप से है मुझे वो बेवफ़ा था तो मैं आस क्यूँ लगा बैठा जो मेरे वास्ते बुनियाद था मोहब्बत की मैं उस ख़याल की दीवार ही गिरा बैठा बुलंद परचम-ए-अज़्म-ए-सफ़र मैं क्या रखता मिरे क़रीब ही मेरा ग़ुबार आ बैठा समाअतों की फ़सीलों पे ऐसा पहरा था कि फ़ड़फ़ड़ाता हुआ ताइर-ए-सदा बैठा मिला वो रात मुझे महफ़िल-ए-मसर्रत में तो मैं अदब से नहीं दुख से दूर जा बैठा 'ज़फ़र' बताओ उसे हाथ क्या लगा सकता जिसे मैं देख के बीनाई ही गँवा बैठा