सब्र रह जाता है और 'इश्क़ की चल जाती है ज़ब्त करता हूँ मगर आह निकल जाती है कुछ नतीजा न सही 'इश्क़ की उम्मीदों का दिल तो बढ़ता है तबी'अत तो बहल जाती है शम' के बज़्म में जलने का जो कुछ हो अंजाम मगर इस अज़्म से साँचे में तो ढल जाती है वा'दा-ए-बोसा-ए-अब्रू का न कर ग़ैर से ज़िक्र दिल-लगी में कभी तलवार भी चल जाती है