सच बोलने वाले की जाँ ख़तरे में है क़ातिल नहीं मुंसिफ़ यहाँ ख़तरे में है हर ज़र्रा जिस के दम से है महका हुआ वो ख़ुशबुओं का कारवाँ ख़तरे में है जा कोई मिट्टी का दिया घर में जला तेरी ख़याली कहकशाँ ख़तरे में है होना तो था गहवारा-ए-अम्न-ओ-अमाँ तेरे सबब लेकिन जहाँ ख़तरे में है अब शो'बदा-बाज़ी नहीं चल पाएगी मुर्शिद तुम्हारा आस्ताँ ख़तरे में है हर चंद उसे ख़तरे का अंदाज़ा नहीं हर शख़्स लेकिन बे-गुमाँ ख़तरे में है अपने लिए जा-ए-अमाँ ढूँडे कहाँ जो दोस्तों के दरमियाँ ख़तरे में है