सच है जब भी कोई हर्फ़ उस की ज़बाँ से निकला ज़हर में डूबा हुआ तीर कमाँ से निकला दूर तक फैल गया हुस्न-ए-मआनी का तिलिस्म ख़ूब मफ़्हूम मिरे लफ़्ज़-ओ-बयाँ से निकला मैं तिरे तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ से बस इतना समझा एक पत्थर था जो शीशे के मकाँ से निकला इक हक़ीक़त पस-ए-अफ़्साना थी रौशन रौशन वो जो काबे को गया शहर-ए-बुताँ से निकला उस तरफ़ दार की मंज़िल थी इधर कूचा-ए-यार मुझ को जाना था कहाँ और कहाँ से निकला मंज़िल-ए-ज़ात मिली रूह हुई आसूदा सिलसिला तार-ए-नफ़स का रग-ए-जाँ से निकला बस कि था पेश-ए-नज़र हुस्न-ए-अज़ल का जल्वा 'नाज़' हर कश्मकश-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ से निकला