सच कहते हो एक कहानी किस किस से दोहराओगे जब भी मेरा नाम सुनोगे ना-वाक़िफ़ बन जाओगे रेत के घर से खेलो जब भी टूटेगा बन जाएगा दिल से न खेलो टूट गया तो तुम भी खेल न पाओगे तुम तो ख़ुद भी शीशा निकले तुम से क्या उम्मीद करें हम समझे थे पर्बत पर्बत तुम पत्थर पिघलाओगे चढ़ता सूरज घटते घटते मग़रिब में खो जाता है इस नगरी की रीत यही है तुम भी ठोकर खाओगे आँखों की बस्ती ने तुम को शबनम नाम से जाना था किस को ख़बर थी दिल नगरी में तुम पत्थर कहलाओगे फूलों से ज़ख़्मी हैं रूहें अब जिस्मों की बारी है पथराई हैं आस में आँखें कब पत्थर बरसाओगे 'नक़वी' घूम रही है धरती तुम भी अपना काम करो यादों के गुम्बद में आख़िर कब तक जी बहलाओगे