सच्चाई कभी अपनी सफ़ाई नहीं देती महसूस तो होती है दिखाई नहीं देती मज़लूमों की फ़रियाद पे लर्ज़ां है फ़लक तक और अहल-ए-सियासत को सुनाई नहीं देती यूँ ज़ुल्म-ओ-तशद्दुद के अँधेरे हैं कि तौबा जीने की कोई राह दिखाई नहीं देती हँस हँस के सितम फ़ाक़ों के सह लेती है लेकिन ख़ुद्दार ग़रीबी तो दुहाई नहीं देती दिल सागर-ए-अफ़्कार में डूबा हो तो 'आलम' कानों को मज़ा नग़्मा-सराई नहीं देती