सदियों से शब-ओ-रोज़ यही सोच रहा हूँ मैं कौन ख़ुदा कौन है मैं भूल गया हूँ ऐसे में उमंगें ही ज़रा साज़ उठाएँ दहलीज़ पे फिर से मैं इरादों की खड़ा हूँ हर चंद भटकना पड़ा बाज़ार में बरसों हर शक्ल की तस्वीर मगर खींच चुका हूँ आए न यक़ीं आए किसी और को मुझ पर सहरा-ए-ख़मोशी में बहुत देर फिरा हूँ 'आरज' कभी उतरा हूँ अँधेरों के जिगर में सूरज के समुंदर में कभी ग़र्क़ हुआ हूँ