सद-शुक्र बुझ गई तिरी तलवार की हवस क़ातिल यही थी तेरे गुनहगार की हवस मुर्दे को भी मज़ार में लेने न देगी चैन ता-हश्र तेरे साया-ए-दीवार की हवस सौ बार आए ग़श अरिनी ही कहूँगा मैं मूसा नहीं कि फिर हो न दीदार की हवस रिज़वाँ कहाँ ये ख़ुल्द ओ इरम और मैं कहाँ आए थे ले के कूचा-ए-दिलदार की हवस सय्याद जब क़फ़स से निकाला था बहर-ए-ज़ब्ह पूछी तो होती मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार की हवस यूसुफ़ को तेरी चाह के सौदे की आरज़ू ईसा को तेरे इश्क़ के आज़ार की हवस दस्त-ए-हवा-ए-गुल में गरेबान है मिरा दामन जुनूँ में खींचती है ख़ार की हवस जब हो किसी का रिश्ता-ए-उल्फ़त गले का तौक़ दीवाना-पन है सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार की हवस माने है ज़ब्त चर्ख़ फुंके क्यूँकर ऐ 'जलाल' किस तरह निकले आह-ए-शरर-बार की हवस