सफ़र भी कोई न हो रहगुज़र भी कोई न हो हमारे बा'द ख़राब इस क़दर भी कोई न हो सब उस हुजूम में गुम होना चाहते हैं जहाँ पता-ठिकाना भी ख़ैर-ओ-ख़बर भी कोई न हो ख़ुदा वो दिन न दिखाए कि इन दयारों में सब आँखें रखते हूँ और दीदा-वर भी कोई न हो ज़माना काश न आए कि फूल फल के बग़ैर फ़क़त घरों का हो जंगल शजर भी कोई न हो ज़मीं न बैन करे मेहरबान माँ की तरह करो कुछ ऐसा किसी का ज़रर भी कोई न हो फिर उस जहान में कैसे रहें कहाँ जाएँ वतन भी कोई न हो और घर भी कोई न हो हमें ज़मीं पे उतारा गया ज़वाल के वक़्त यही बजा है तो फिर नौहागर भी कोई न हो