सुर्ख़ी बदन में रंग-ए-वफ़ा की थी कुछ दिनों तासीर ये भी उस की दुआ की थी कुछ दिनों ढूँडे से उस के नक़्श उलझते थे और भी हालत तमाम कर्ब-ओ-बला की थी कुछ दिनों काग़ज़ पे था लिखा हुआ हर हर्फ़-ए-लब-कुशा तहरीर जिस्म-ए-सौत-ओ-अदा की थी कुछ दिनों शाख़ों पे कोंपलों को ज़बानें अता हुईं ये दिलबरी भी दस्त-ए-सबा की थी कुछ दिनों दिल-सोज़ी-ए-वफ़ा को शकेबाई की अता शाइस्तगी ये रंग-ए-हिना की थी कुछ दिनों अब है कुदूरतों का खुला दश्त और मैं चाहत तमाम तेरी रज़ा की थी कुछ दिनों कैफ़ियत-ए-नशात थी ख़ुद ही से गुफ़्तुगू 'नाहीद' ये रिदा भी हया की थी कुछ दिनों