तिरे दीदार की ख़ातिर मह-ओ-अख़्तर जागे ये परिंदे भी तिरे हिज्र में अक्सर जागे कहीं जुगनू कहीं तारे कहीं मंज़र जागे फिर सताने के लिए मुझ को सितमगर जागे अपनी आँखों में बसा कर ग़म-ए-हिज्राँ की कसक काश तू भी कभी मेरे लिए शब भर जागे आग और ख़ून के दरिया को रवानी देने ख़ूगर-ए-ज़ुल्म जफ़ा-कारों के लश्कर जागे ख़ुशबुएँ झूम उठीं नूर की बरसात हुई तेरे आने से बहारों के मुक़द्दर जागे दिन की दहलीज़ हो या रात का आँगन लेकिन दिल की धड़कन है कि हर-वक़्त बराबर जागे कुछ तुम्हीं पर नहीं 'अख़्तर' शब-ए-फ़ुर्क़त का असर हम भी आँखों में लिए अश्कों के कंकर जागे