सज़ा ही दी है दुआओं में भी असर दे कर ज़बान ले गया मेरी मुझे नज़र दे कर ख़ुद अपने दिल से मिटा दी है ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ उड़ा दिया है मगर उस को अपने पर दे कर निकल पड़े हैं सभी अब पनाह-गाहों से गुज़र गई है सियह शब ग़म-ए-सहर दे कर उसे मैं अपनी सफ़ाई में क्या भला कहता वो पूछता था जो मोहलत भी मुख़्तसर दे कर पुकारता हूँ कि तन्हा मैं रह गया हूँ 'नसीम' कहाँ गया है वो मुझ को मिरी ख़बर दे कर