तौफ़ीक़ अगर रहबर-ए-मंज़िल नहीं होती मेराज-ए-मोहब्बत कभी हासिल नहीं होती जो सोज़-ए-मोहब्बत से न हो शो'ला-ब-दामाँ वो शम्अ' कभी रौनक़-ए-महफ़िल नहीं होती जो आँख न हो हुस्न-ए-हक़ीक़त की शनासा वो दीद-ए-रुख़-ए-यार के क़ाबिल नहीं होती जब तक न भरे रंग वफ़ा मानी-ए-फ़ितरत तस्वीर-ए-मोहब्बत कभी कामिल नहीं होती दिलकश हैं कुछ ऐसे रह-ए-उल्फ़त के मनाज़िर रहरव को कभी ख़्वाहिश-ए-मंज़िल नहीं होती गिर पड़ता हूँ अक्सर मैं रह-ए-इश्क़ में जिस जा इक मरहला होता है वो मंज़िल नहीं होती ना-काम मोहब्बत हूँ मैं ऐ 'राज़' तो क्या ग़म ये बात भी हर एक को हासिल नहीं होती