सजे हैं हर तरफ़ बाज़ार ऐसा क्यूँ नहीं होता बिके अब तो ग़म-ए-लाचार ऐसा क्यूँ नहीं होता तुम्हारे और मेरे दरमियाँ पर्दा है ग़फ़लत का गिरे कम्बख़्त ये दीवार ऐसा क्यूँ नहीं होता अभी यूँ ही ख़याल आया अगर वो ज़ुल्म करता है तो पहुँचे कैफ़र-ए-किरदार ऐसा क्यूँ नहीं होता फ़रिश्ता ही चला आए अगर इंसाँ नहीं आता मिरा दिल है बयाबाँ ग़ार ऐसा क्यूँ नहीं होता किसी की याद की ठंडी हवाएँ आज भी हैं पर करें दिल को गुल-ओ-गुलज़ार ऐसा क्यूँ नहीं होता ग़ज़ल का शे'र उन पर भी असर-अंदाज़ होता है मियाँ 'उल्फ़त' मगर हर बार ऐसा क्यूँ नहीं होता