दिल उसे दे दिया 'सख़ी' ही तो है मर्हबा परवरिश-ए-अली ही तो है दिल दिया है दिलावरी ही तो है जान भी उस को देंगे जी ही तो है क्यूँ हसीनों की आँख से न लड़े मेरी पुतली की मर्दुमी ही तो है न हुई हम से उम्र भर सीधी अबरू-ए-यार की कजी ही तो है आरिज़ उस का न देखूँ मर जाऊँ ज़िंदगी मेरी आरज़ी ही तो है न हँसे वो न गुल दहन का खुला अभी नाम-ए-ख़ुदा कली ही तो है की ख़िताबत को गर ख़ुदा समझा बंदा भी आख़िर आदमी ही तो है गाल में वाँ हवा के सदमे से पड़ गया नील नाज़ुकी ही तो है आज क्यूँ चौंक चौंक पड़ते हो इस मकाँ में फ़क़त 'सख़ी' ही तो है