समझें जो मेरे ग़म को वो अपने नहीं रहे झूटे बहुत हैं शहर में सच्चे नहीं रहे तू ने तो अपनी ज़ीस्त भी कर ली बसर मगर तुझ से बिछड़ के हम तो कहीं के नहीं रहे हम ख़ुश हुए सभी की तरक़्क़ी को देख कर लेकिन तुम्हारी तरह सुलगते नहीं रहे कल तो किसी भी राह में ख़ौफ़-ओ-ख़तर न था महफ़ूज़ आज शहर के रस्ते नहीं रहे राह-ए-वफ़ा में मुश्किलें आई तो थीं बहुत लेकिन हम अपनी राह बदलते नहीं रहे जब से हयात अश्क-ए-नदामत से धोई है आईना-ए-हयात पे धब्बे नहीं रहे जो हुक्म-ए-वालदैन की तामील कर सकें इस दौर में 'हिलाल' वो बच्चा नहीं रहे