संग-ए-तिफ़्लाँ फ़िदा-ए-सर न हुआ आज उस कूचे में गुज़र न हुआ हम भी थे जौहर-ए-गिराँ-माया पर कोई साहिब-ए-नज़र न हुआ अम्न-आलम में क्यूँ नहीं या रब इस के क़ाबिल मगर बशर न हुआ बे-कसी पर्दा-दार-ए-दर्द हुई ख़ैर गुज़री कि अपना घर न हुआ क़द्रदानी की कैफ़ियत मालूम ऐब क्या है अगर हुनर न हुआ सर झुकाए जो आते हो 'वहशत' मगर इस बज़्म में गुज़र न हुआ