तन्हा अमीन-ए-जुरअत-ए-इज़हार मैं ही था शायद इसी बिना पे सर-ए-दार मैं ही था सब की नज़र थी उस की 'इनायात की तरफ़ लेकिन हरीस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार में ही था देखा है झाँक कर जो कभी अपनी ज़ात में ऐसा लगा कि सिर्फ़ गुनहगार मैं ही था कुछ मैं ही जानता हूँ कमी जो भी मुझ में है कहने को एक साहब-ए-किरदार मैं ही था मैं ही था जिस पे जान छिड़कते थे तुम कभी कुछ याद है तुझे तिरा दिलदार मैं ही था क्यों सिर्फ़ मेरे हाथ क़लम कर दिए गए शायद अकेला शहर में फ़नकार मैं ही था मम्बा’ थी ख़ैर-ओ-शर का मिरी अपनी ज़ात ही अपनी अना से बरसर-ए-पैकार मैं ही था मुझ पर ही था ‘इताब-ए-ज़माना तमाम 'उम्र शहर-ए-वफ़ा में साहिब-ए-पिंदार मैं ही था अहल-ए-ख़िरद भी करते हैं अब पैरवी 'ज़की' दश्त-ए-जुनूँ में क़ाफ़िला-सालार मैं ही था