सन्नाटा छा गया है शब-ए-ग़म की चाप पर सूरज को था यक़ीन बहुत अपने-आप पर वो साइक़ा मिज़ाज है मैं सर्द बर्फ़ सा हैरत-ज़दा हैं लोग तमाम इस मिलाप पर मैं हूँ फ़सुर्दा शाम की अफ़्सुर्दगी है और धुँदला सा अक्स-ए-यार है यादों की भाप पर मैं मंज़िलों की जुस्तुजू में था ब-रंग-ए-मौज अब रक़्स कर रहा हूँ मोहब्बत की थाप पर लाज़िम ये पेश-ख़ेमा-ए-आफ़ात है 'ख़याल' बेजा जमा नहीं हैं परिंदे अलाप पर