उज़्र हवा ने क्या रक्खा है कैसा शोर मचा रक्खा है इक बे-नाम तअल्लुक़ में भी ख़ौफ़ बिछड़ने का रक्खा है देखो हम ने इस लम्हे का कितना बोझ उठा रक्खा है उस की आँखें देख रहा हूँ जिस ने जाल बिछा रक्खा है धूप में उस ने किस की ख़ातिर छत पर चाँद उगा रक्खा है तुम पागल हो तुम क्या जानो किस के दिल में क्या रक्खा है हम ने तेरी ख़ातिर ही तो आँखों में रस्ता रक्खा है आज ग़ज़ल कुहनी थी हम ने तुम को पास बिठा रक्खा है 'क़ैस' अपनी दीवार में हम ने एक दिया दफ़ना रक्खा है