सर-ए-मंज़र न मिले तो पस-ए-मंज़र देखूँ कोई सूरत हो मगर मैं उसे अक्सर देखूँ अपने अफ़्कार को मैला तो नहीं कर सकती फूल बरसें कि बरसते हुए पत्थर देखूँ मैं भी इक मौज हूँ मेरा भी मुक़द्दर है सफ़र कैसे साहिल पे खड़े रह के समुंदर देखूँ कोई गुज़रा हुआ लम्हा तो पलटना ही नहीं ये कहाँ ताब कि आईना मुकर्रर देखूँ सुनते हैं गीत बना करती हैं किरनें अक्सर चाँद को आज तो आँगन में निकल कर देखूँ वक़्त के पाँव में ज़ंजीर-ए-दुआ भी डालो जब सर-ए-शाख़-ए-चमन कोई गुल-ए-तर देखूँ सच की मेरे लिए क्यों और न क़ीमत बढ़ जाए जब मैं लटकी हुई तलवार भी सर पर देखूँ मेरे फ़न का है यही मुझ से तक़ाज़ा 'रा'ना' जो मिरी ज़ात में पिन्हाँ है वो बाहर देखूँ