ये कैसी शब के धुँदलकों के आस-पास है शाम बहुत उदास है देखो बहुत उदास है शाम हुमक रही है तग़य्युर की तुंद शाख़ों पर शफ़क़ के फूल से लिपटी हुई सी बास है शाम चुरा रही हैं ख़लाएँ जो उस की गोद का नूर स्याह रात के डर से रहीन-ए-यास है शाम उलझ गई है उफ़ुक़ में शफ़क़ की अंगड़ाई उमड रहे हैं धुँदलके तो बद-हवास है शाम ये सुर्ख़ियों में सियाही के रेंगते डोरे दलील-ए-ख़ौफ़ है अंदाज़ा-ए-हिरास है शाम ये लम्हे लम्हे के साँचे में ढलती जाती है ज़रूर रम्ज़-ए-मशिय्यत से रू-शनास है शाम तपिश को ग़म की बुझाए है अश्क-ए-शबनम से किसी ग़रीब की टूटी हुई सी आस है शाम वही फ़रेब-ए-तमद्दुन है फिर नसीब के नाम किसी का वक़्त-ए-परेशाँ किसी को रास है शाम गुज़र तो जाएगी लेकिन ग़म-ए-सहर बन कर शब-ए-दराज़ की इक मुख़्तसर असास है शाम पलट के देख ज़रा ज़ाविए बदल 'राही' तिरी निगाह पे मब्नी तिरा क़यास है शाम