सर में राह-ए-इश्क़ पर चलने का है सौदा अभी कौन सी मंज़िल है मेरी ये नहीं सोचा अभी फ़र्त-ए-ग़म में मुस्कुराना तो बहुत दुश्वार है मुझ को रोने का सलीक़ा भी नहीं आया अभी हाल-ए-दिल हो जाएगा ख़ुद एक दिन उन पर अयाँ मस्लहत इस में भी है क़ाएम रहे पर्दा अभी मैं तो दिल पर चोट खा कर ज़ब्त से ख़ामोश था अश्क-आलूदा मगर था क्यों रुख़-ए-ज़ेबा अभी वो नहीं समझेगा क्या हैं तल्ख़ियों में लज़्ज़तें जिस ने अपने दोस्त से धोका नहीं खाया अभी जुर्म कुछ बख़्शेंगे वो कुछ की सज़ा मिल जाएगी तू मुझे क्यों खाए जाता है ग़म-ए-फ़र्दा अभी तिफ़्ल-ए-मकतब हूँ 'शिफ़ा' मय-ख़ाना-ए-‘मख़मूर’ में ज़ेब देते हैं मुझे कब साग़र-ओ-मीना अभी