सर-निगूँ हुस्न पे हो इश्क़ सर-अफ़राज़ न हो लन-तरानी का सर-ए-तूर यही राज़ न हो हम समझने ही से मा'ज़ूर रहे हों शायद लब पे ग़ुंचे के कहीं तेरी ही आवाज़ न हो पर्दा दर पर्दा हिजाबात में रहने वाले ग़ैर-मुमकिन है कि जब सोज़ तो हो साज़ न हो बाग़-ए-आलम में ये आवरगी-ए-निकहत-ए-गुल तेरी ज़ुल्फ़ों के हसीं कैफ़ का ए'जाज़ न हो इश्क़ रंगीन बता देता है दुनिया-ए-हयात मस्ती-ए-हुस्न-ए-नज़र का तिरी ए'जाज़ न हो तेरे दीवाना-ए-उलफ़त के लिए मौज़ूँ है ऐसा आलम जो किसी और का दम-साज़ न हो 'जौहर' उस आइना-रुख़्सार की महफ़िल में कहीं इज़्तिराबी दिल-ए-बेताब की ग़म्माज़ न हो