तबाह कर के दिल-ए-ख़ानुमाँ-ख़राब मुझे क़रीब-ए-मंज़िल-ए-हस्ती न दे जवाब मुझे ब-लुत्फ़-ए-ख़ास इनायत हो आज तो साक़ी निगाह-ए-शोख़ से इक साग़र-ए-शराब मुझे तमाम उम्र बसाया उन्हें निगाहों में वो आज बख़्श गए दूरी-ए-हिजाब मुझे हर एक रिंद पुकारा तुम्हारे जाते ही शराब चाहिए अब बे-हद-ओ-हिसाब मुझे न अब तकल्लुफ़-ए-बेजा से काम ले साक़ी पिला पिला सर-ए-मय-ख़ाना बे-हिसाब मुझे अगर लगाओ न होता उन्हें तो वो 'जौहर' सितम के वास्ते क्यों करते इंतिख़ाब मुझे