सर पे आफ़त है मुसीबत है बचा ले मुझ को लड़खड़ाते हैं क़दम कोई सँभाले मुझ को मैं मसाइब में भी जीने की दुआ माँगूँगा लोग कहते हैं कि दुनिया से उठा ले मुझ को मैं वो गौहर हूँ जो सीने में दबा हूँ उस के कोई मल्लाह समुंदर से निकाले मुझ को मैं कमाता हूँ मगर अब भी मज़ा देते हैं मेरे माँ बाप के हाथों के निवाले मुझ को इक बड़े अर्से से मैं रूठ गया हूँ ख़ुद से हो सके गरचे कोई आ के मना ले मुझ को नाज़ आएगा मुक़द्दर पे मुझे तब 'अहमद' जब कोई आ के नसीब अपना बना ले मुझ को