उस के रंग में रंगी गुज़र जाए ज़िंदगी फिर मिरी सँवर जाए ज़िंदगी मौत की अमानत है फिर भला कोई क्यों मुकर जाए ज़िंदगी इक धुएँ का मर्ग़ोला जब हवा तेज़ हो बिखर जाए उस ने मेराज-ए-ज़िंदगी पाई जो ख़ुदा की रज़ा में मर जाए मुस्तहिक़ लोग हाथ मलते हैं और गदागर की झोली भर जाए गर हिदायत न हो तिरी मुझ को तेरा दीवाना फिर किधर जाए ये अलामत भी है मुनाफ़िक़ की वा'दा करके भी जो मुकर जाए ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं 'नश्तर' जो फ़क़त खेल में गुज़र जाए