सर उठाए हुए ज़िंदाँ से गुज़र जाते हैं सर-फिरे लोग बयाबाँ से गुज़र जाते हैं जानने के लिए चढ़ते हुए दरिया का मिज़ाज हम तो बहते हुए तूफ़ाँ से गुज़र जाते हैं याद आ जाता है हम को ग़म-ए-दौराँ का सुलूक लोग जब भी ग़म-ए-जानाँ से गुज़र जाते हैं हम ने देखा है मसीहा को भी पाबंद-ए-जुनूँ अहल-ए-दिल जब कभी दरमाँ से गुज़र जाते हैं वो तो आँसू थे जो आँखों ही में महफ़ूज़ रहे ये हैं कुछ फूल जो मिज़्गाँ से गुज़र जाते हैं फ़स्ल-ए-गुल लाई है दामन में छुपा कर काँटे इस लिए फूल गुलिस्ताँ से गुज़र जाते हैं इक फ़साना है अधूरा सा नए दौर के लोग रौशनी ले के शबिस्ताँ से गुज़र जाते हैं सर उठाए हुए फिरते थे यहाँ कल जो 'मुनीर' आज वो गर्दिश-ए-दौराँ से गुज़र जाते हैं