तुम्हें शब-ए-व'अदा दर्द-ए-सर था ये सब हैं बे-ए'तिबार बातें यक़ीं न आएगा हम को हरगिज़ बनाओ गो तुम हज़ार बातें नहीं जो मंज़ूर तुम को मिलना तो क्यूँ नहीं साफ़ साफ़ कहते समझ में आती नहीं हमारे करो न तुम पेचदार बातें उठी है काली घटा फ़लक पर है साक़ी-ए-माह-वश बग़ल में बहक बहक कर हैं क्या मज़े से बना रहे बादा-ख़्वार बातें हुईं हैं जिस दिन से चार आँखें तुम्हारी ऐ यार 'मशरिक़ी' से यही तमन्ना है बैठ कर तुम सुनो हमारी दो-चार बातें है आई मुश्किल से वस्ल की शब कि जिस की मुद्दत से थी तमन्ना जो मैं ने शिकवे किए थे उस की करो न तुम बार बार बातें ये क्या महल है कि आज करते हो शैख़ जी ज़िक्र-ए-ज़ोहद-ओ-तक़्वा यही है वाजिब कि हों गुल-ओ-मुल की वक़्त-ए-फ़स्ल-ए-बहार बातें जो आज आए हो मेरे घर पर तो है ये ज़िक्र-ए-रक़ीब कैसा न कीजिए 'मशरिक़ी' से साहब कि हैं ये सब नागवार बातें