सारे उम्मीदों के फूलों को कुचल कर रख दिया शीशा-ए-दिल पर हमारे उस ने पत्थर रख दिया अपनी बस्ती से अँधेरा दूर हो ये सोच कर आग की बाँहों में हम ने अपना छप्पर रख दिया उस की आँखों में जो देखे थे ब-वक़्त-ए-रुख़्सती नाम उन अश्कों का हम ने लाल-ओ-गौहर रख दिया क्या नई तहज़ीब मेरे घर तलक भी आ गई सर का दोपट्टा जो बेटी ने उठा कर रख दिया सारी ही तहरीर मालिया-मेट हो कर रह गई उस ने काग़ज़ पर जो अपना दीदा-ए-तर रख दिया मस्लहत के फूलों में ख़ंजर न हो कोई छुपा सोचिए क़दमों पे उस ने क्यों मिरे सर रख दिया ख़ुद वो अपने आप में मजबूर था 'ज़ाहिद' बहुत बेवफ़ाई का मगर इल्ज़ाम मुझ पर रख दिया