हर सफ़र के बा'द वैसा ही सफ़र रक्खा गया और फिर मक़्सूम मेरा दर-ब-दर रक्खा गया अर्सा-ए-दश्त-ए-तलब को इंतिहा बख़्शी गई मोहलत-ए-उम्र-ए-रवाँ को मुख़्तसर रक्खा गया हम कहाँ सीने की तह में ये समुंदर थामते एक उस ख़ातिर तुझे ऐ चश्म-ए-तर रक्खा गया हासिल-ए-जाँ पर ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-हसरत खींच कर दरमियाँ उस दिल के ख़्वाहिश का शरर रक्खा गया बोसा-ए-ख़ुर्शीद से खोला सहर का पैरहन ज़ानू-ए-शब पर मह-ए-कामिल का सर रक्खा गया दिन के रस्तों पर बिछाई ना-रसाई की थकन नींद की दहलीज़ पर ख़्वाबों का पर रक्खा गया मुज़्तरिब रहती है कोह-ओ-दश्त में जैसे हवा इस तरह सीने में साँसों का गुज़र रक्खा गया आते-जाते हर-नफ़स में मौत का था ज़ाइक़ा राएगाँ जीने में मरने का हुनर रक्खा गया ख़्वाहिशें जागें जमाल-ए-यार के दीदार से पानियों पर माह-ए-उर्यां का असर रक्खा गया उम्र भर 'सरमद' थी जिस को याद रखने की सज़ा सामना उस शोख़ से इक लम्हा भर रक्खा गया