सर-निगूँ मौसम-ए-बहार में है ये शजर किस के इंतिज़ार में है ताब-ए-नज़्ज़ारा आँख को भी नहीं दिल भी कब अपने इख़्तियार में है ज़ीस्त हो बात हो कि मज्लिस हो लुत्फ़ गर है तो इख़्तिसार में है वो बस इक बार छू के गुज़रे थे रूह तक लम्स के ख़ुमार में है कैसा उल्टा सफ़र है जीवन का ये चढ़ाव किसी उतार में है ज़ीस्त करने में लुत्फ़ क्या ढूँढें क्या मज़ा वक़्त-ए-मुस्तआ'र में है बात कुछ तो अजीब है अब के कैसी तल्ख़ी मिज़ाज-ए-यार में है