सौ बार यूँ गरजने को बादल गरज गया लेकिन ज़मीन-ए-खुश्क को कुछ भी न तज गया घर जा के मोतियों की तरह जगमगा उठी मैं अपने साथ ले के जो दरिया की रज गया हर ताजवर की ताज-वरी ज़ेर-ए-ख़ाक है लेकिन अभी कुलाह-ए-अना का न कज गया जब भी तिरे ख़याल की ख़ुशबू महक उठी कमरा सुहाग-रात के फूलों से सज गया दो मेहर-ओ-माह एक ही क़ालिब में ढल गए अक्सर शब-ए-विसाल का जब एक बज गया ज़ाहिद मैं आज तक न हरम तक गया मगर कू-ए-सनम में रोज़ ही करने को हज गया बरसों से फ़न की किश्त थी बंजर पड़ी हुई ऐ 'कैफ़' तेरे ख़ून से क्या क्या उपज गया