सोचता हूँ रात जो सूरज था दाएँ हाथ में सुब्ह कैसे ढल गया वो मेरे बाएँ हाथ में हम अगर कुछ और अपने ज़ेहन-ओ-दिल रौशन करें दोस्तो ये माह-ओ-अंजुम जगमगाएँ हाथ में हल न हो पाया अगर क़हत-ए-ज़मीं का मसअला ये भी मुमकिन है कि हम फ़स्लें उगाएँ हाथ में दश्त-ए-चश्म-ओ-क़ल्ब में भी जो नज़र आता नहीं आओ हम तुम को वही मंज़र दिखाएँ हाथ में जब हिसार-ए-ख़ौफ़ से आज़ाद हो जाता है दिल क़ैद हो जाती हैं तब सारी बलाएँ हाथ में जब मिरी साँसों से ये माहौल यख़-बस्ता हुआ मुंजमिद होने लगीं जलती हवाएँ हाथ में शायरी की ये शब-ए-तारीक ढलती ही नहीं 'कैफ़' कब तक हम चराग़-ए-फ़न जलाएँ हाथ में