सौ दाग़ तमन्नाओं के हम खाए हुए हैं गुल जितने हैं इस बाग़ में मुरझाए हुए हैं शर्मिंदा हूँ मैं अपनी दुआओं के असर से वो आज परेशान हैं घबराए हुए हैं ख़ुद्दारी-ए-गेसू का है उस रुख़ पे ये आलम झुकना जो पड़ा उन को तो बल खाए हुए हैं अब तुम भी ज़रा हुस्न-ए-जहाँ-सोज़ को रोको हम तो दिल-ए-बे-ताब को समझाए हुए हैं ऐ दस्त-ए-करम फेंक दे कौनैन को इस में दामन को तिरे सामने फैलाए हुए हैं फोड़ेंगे जबीं अब तिरे दर पर तिरे मुहताज बर्बाद हैं तक़दीर के ठुकराए हुए हैं आता है बढ़ा बहर-ए-करम जोश में 'कैफ़ी' हम अपने गुनाहों पे जो शरमाए हुए हैं