सवाद-ए-हिज्र में रक्खा हुआ दिया हूँ मैं तुझे ख़बर नहीं किस आग में जला हूँ मैं मैं क़र्या क़र्या फिरा गर्द-बाद बन के जहाँ उसी ज़मीन पे परचम-सिफ़त उठा हूँ मैं अभी छुटी नहीं जन्नत की धूल पाँव से हनूज़ फ़र्श-ए-ज़मीं पर नया नया हूँ मैं हज़ार शुक्र है कि ख़ुद पे उस्तुवार था मैं हज़ार शुक्र कि बुनियाद पर गिरा हूँ मैं मिरी शगुफ़्त के मौसम अभी नहीं आए कहीं कहीं पे मगर फिर भी खिल गया हूँ मैं मिरी शिकस्त भी है रेख़्त 'इफ़्तिख़ार-मुग़ल' कि यूँही बनने बिगड़ने में ही बना हूँ मैं