सवाद-ए-शाम से ता-सुब्ह-ए-बे-किनार गई तिरे लिए तो मैं हर बार हार हार गई कहाँ के ख़्वाब कि आँखों से तेरे लम्स के बाद हज़ार रात गई और बे-शुमार गई मैं मिस्ल-ए-मौसम-ए-ग़म तेरे जिस्म ओ जाँ में रही कि ख़ुद बिखर गई लेकिन तुझे निखार गई कमाल-ए-कम-निगही है ये ए'तिबार तिरा वही निगाह बहुत थी जो दिल के पार गई अजब सा सिलसिला-ए-ना-रसाई साथ रहा मैं साथ रह के भी अक्सर उसे पुकार गई ख़बर नहीं कि ये पूछूँ तो किस से पूछूँ मैं वहाँ तलक मैं गई हूँ कि रहगुज़ार गई