सवाल-ए-शाम पे आया जवाब-ए-शब आख़िर कशीदगी का न पाया मगर सबब आख़िर तुम्हारे ग़म मिरे ख़्वाहाँ न मेरा अपना वजूद कहाँ से लाऊँगी मैं शिद्दत-ए-तलब आख़िर इनायत उन की जो वो हाल पूछ लें वर्ना किसी से उन के मरासिम हुए हैं कब आख़िर मोहब्बतों की रिवायत तो काएनात में है तुम्हारी आँख है अव्वल न मेरे लब आख़िर तुम्हारे नाम सुख़न और तुम नहीं समझे हमारे शे'र हुए हिस्सा-ए-अदब आख़िर नहीं मिला कोई ये बात पूछने वाला बना लिया है ये क्या ज़िंदगी का ढब आख़िर उड़ा जो ताइर-ए-हस्ती तो फिर न ठहरेगा 'नसीम' कर तो सही कोशिश-ए-तरब आख़िर