सवाल को तर्ज़-ए-मुनफ़रिद से उठा रहा हूँ अगर मैं सब से जुदा रहा हूँ तो क्या रहा हूँ अजीब हरकत है ज़िंदगी के जुमूद में भी पड़ा हूँ बिस्तर पे और लगता है जा रहा हूँ किसी ने देखा नहीं है जिस को वो ख़्वाब देखा जिसे सुनाया नहीं गया है सुना रहा हूँ ये ज़िंदगी है अगर उधर भी जो है इधर भी हो इल्म कैसे मैं जा रहा हूँ कि आ रहा हूँ किसी ने चलने का कह दिया तो नहीं रुका मैं अगर किसी ने कहा कि रुक जा खड़ा रहा हूँ चबाए जाते हैं एक दूजे को दर्द और मैं ये मुझ को अंदर मैं उस को बाहर से खा रहा हूँ