सावन की भीगी भीगी हर इक रात भी गई दिल में लगा के आग ये बरसात भी गई ये दूरियाँ तो अपना मुक़द्दर ही थीं मगर थोड़ी बहुत जो थी वो मुलाक़ात भी गई आँखों में कितने ख़्वाब संजोए थे रात भर अरमाँ का ख़ून कर के हसीं रात भी गई मिलते भी हैं तो जैसे तअ'ल्लुक़ ही कुछ न हो अब तो वो रस्म-ए-पुर्सिश-ए-हालात भी गई अब ऐ 'नज़र' है हद्द-ए-नज़र तक ग़ुबार-ए-राह वो कारवान-ए-ज़ीस्त की बारात भी गई