निकहत जो तिरी ज़ुल्फ़-ए-मोअ'म्बर से उड़ी है कब ख़ुल्द में ख़ुश्बू वो गुल-ए-तर से उड़ी है हसरत भरी नज़रों से उसे देख रहा हूँ वो आब जो चलते हुए ख़ंजर से उड़ी है इक क़ाबिज़-ए-अर्वाह के हमराह मिरी रूह पैकर से जो निकली तो बराबर से उड़ी है वहशत के सबब जब मिरा घर हो गया वीराँ तब घर के उजड़ने की ख़बर घर से उड़ी है रिंदों की भी क़िस्मत की ख़राबी का है अफ़्सोस मय बन के परी शीशा-ओ-साग़र से उड़ी है साक़ी ने तुझे तिश्ना ही रक्खा है 'ज़हीर' अब शायद मय-ए-इशरत भी मुक़द्दर से उड़ी है